Zenab rehan

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पांचवा अध्याय




पाँचवां अध्याय

चौथे अध्याकय में जो कुछ भी कहा गया है वह अर्जुन के और दूसरों के भी बड़े ही काम का है। इसमें शक की जगह नहीं है। अर्जुन चुपचाप ध्या नपूर्वक इसीलिए सुनता भी रहा। कर्म-अकर्म के विशद निरूपण और ज्ञान के स्वरूप के प्रतिपादन ने उसे मुग्ध कर दिया था। अंत में जो यह कहा गया है कि कर्मों के करते-करते संन्यास प्राप्त कर लेने पर ही ज्ञान होता, आत्मा की प्राप्ति होती और कर्मों के बंधन से छुटकारा मिल जाता है, उससे भी उसे पूरा संतोष हुआ। फलत: भीतर ही भीतर अपने तात्कालिक कर्तव्य की उधेडबुन वह करने ही लगा था कि एकाएक निराली बात अध्याफय के आखिरी श्लोक में कह दी गई! उसे तो यह देखना था कि मैं किस दशा में हूँ। आया मुझे अभी कर्म ही करना चाहिए, या अब मेरी योग्यता ऐसी हो गई है कि संन्यास ले लूँ। क्योंकि उपदेश सुनने के बाद उसे सोचना-विचारना और परिस्थिति के अनुसार ही काम करना था। वह उसी उधेडबुन में लगा भी था। तब तक चटपट आज्ञा हुई कि खड़े हो जाओ और युद्धात्मक कर्म में जुट जाओ।

इससे उसके मन में खलबली मचना और संदेह होना जरूरी था। क्योंकि कृष्ण को क्या पता कि वह किस दशा में है, उसकी योग्यता क्या है? उसका पता तो आत्मनिरीक्षण के बाद अर्जुन को ही लग सकता था। निरीक्षण की कसौटी भी उसे चौथे अध्यााय में मिली ही थी। फिर कृष्ण को यह कहने की क्या जरूरत थी कि तुम्हें तो कर्म ही करना है, न कि संन्यास लेना? तब तो उपदेश की कोई जरूरत थी ही नहीं। किंतु सीधे आज्ञा देनी थी, फौजी फरमान जारी कर देना था कि लड़ना होगा। मगर जब उपदेश हो रहा है और तर्क-दलील के साथ बरा-बार कहा जा रहा है कि जानो, समझो, सोचो, विचारो 'बोद्धव्यम्, विद्धि', तब यह क्यों हुआ? तब यह आज्ञा कैसी कि लड़ो? तब तो यह उपदेश का नाटक ही माना जाएगा न? कम से कम इस प्रकार का खयाल उसके दिमाग में बिजली की तरह एकाएक दौड़ जाना स्वाभाविक था। फलत: कृष्ण से उसका चटपट प्रश्न करना जरूरी हो गया कि एक ही साँस में दोनों बातें क्यों कहते हैं? या तो कर्म ही कहिए और बात खत्म कीजिए; या संन्यास की ही बात कहिए और सोचने दीजिए कि आया मैं उसका अभी अधिकारी हो पाया हूँ या नहीं। यह झमेला ठीक नहीं। साफ-साफ बोलिए। इसीलिए -

अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

एच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥ 1 ॥

अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण, आप (पहिले तो) कर्मों के संन्यास की बात कहते हैं और (फौरन ही) उन्हें करने को कहते हैं! (यह क्या?) इन दोनों में जो अच्छा हो वही मुझे पक्का-पक्की बताइए। 1।

यहाँ 'कर्मणां' इस षष्ठी विभक्ति के बाद 'संन्यास' और 'योगं' लिखने से स्पष्ट हो जाता है कि संन्यास कहते हैं कर्मों के त्याग को और योग कहते हैं उनके करने को। इसीलिए हमने 'कर्मेंद्रियै: कर्मयोगं' (3। 7) आदि में 'करना' यही अर्थ किया है। यही वहाँ जँचता भी है। ऐसी दशा में यहाँ, चौथे अध्या(य के अंत में या ऐसी ही और जगहों में भी योग का दूसरे अध्या य वाला कर्मयोग अर्थ जो लोग कर डालते हैं, फिर भी अपने अर्थ में खींचातानी देख पाते नहीं, उनसे हमें इतना ही अर्ज करना है कि खींचतान किसी की मौरूसी नहीं है। इसलिए वे खुद अपने बारे में ही सोचने का कष्ट करें।

अर्जुन के पूछने का यह भी अभिप्राय है कि यदि ज्ञान के लिए संन्यास जरूरी न हो और कर्म से ही काम चलता हो, तो साफ-साफ कहते क्यों नहीं? आखिर आत्मज्ञान तो आवश्यक है। उसके बिना तो काम चलने का नहीं । अब अगर उसके लिए खामख्वाह संन्यास जरूरी न हो, तो यही बात साफ-साफ कह दीजिए। क्योंकि अब तक के कथन से तो पता चलता है कि दोनों की जरूरत है। मैंने समझी है भी दोनों की जरूरत समानरूप से ही। इसीलिए किसी को भी अपने मौके पर छोड़ा नहीं जा सकता। दोनों के ही अलग-अलग मौके आते भी हैं। लेकिन अगर आप ऐसा मानते हों कि मेरी समझ गलत है और दोनों की जरूरत समान नहीं है; किंतु कर्म की ही आवश्यकता अनिवार्य है; इसलिए वही हर हालत में अच्छा है - कर्तव्य है, तो यही बात निश्चित रूप से साफ-साफ कह दीजिए। या अगर आप यह मानते हों कि जरूरत तो दोनों की इक-सी ही है; दोनों के ही अपने-अपने अवसर भी आते हैं, फिर भी कर्म की विशेषता इसलिए है कि वह पहली सीढ़ी है; फलत: उस पर पाँव दिए बिना संन्यास की दूसरी सीढ़ी पर या तो पहुँची नहीं सकते या पहुँचने में खतरा है; साथ ही, कर्मों के करने में दिक्कतें और परेशानियाँ जो होती हैं, उन्हीं के करते लोग जी चुरा के उनसे भागना चाहते हैं; यही कारण है कि कर्म पर जितना जोर देना जरूरी हो जाता है उतना संन्यास पर नहीं; यही नहीं, कर्म पर ही जोर देने और उसी को अच्छा बताने पर जब लोग उसमें पड़ जाएँगे तो संन्यास का मौका तो स्वयं आई जाएगा और उसे लोग करी लेंगे; तो यही बात स्पष्टतया कह दीजिए।

कृष्ण खासतौर से इसी आखिरी अभिप्राय से ही बातें कर रहे थे। उनके कहने का आशय भी यही था। इसीलिए उसी को स्पष्ट करने के लिए पुनरपि -

श्रीभगवानुवाच

संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ 2 ॥

श्रीभगवान ने उत्तर दिया - (बेशक), कर्मों का संन्यास और उनका करना (ये दोनों ही) परम कल्याण - मोक्ष - के देनेवाले हैं। लेकिन इनमें संन्यास से योग - कर्मों का करना - ही अच्छा है। 2।

ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते॥ 3 ॥

हे महाबाहु, उसी को सदा संन्यासी मानना चाहिए जिसे न राग है, न द्वेष - जो न कुछ हटाना चाहता है, न कुछ लेना। क्योंकि जो (इस प्रकार) राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित है वही आसानी से बंधनों से छुटकारा पा जाता है। 3।

सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पंडिता:।

एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥ 4 ॥

सांख्य - संन्यास (और) योग को - दोनों को - दो चीजें नासमझ लोग (ही) मानते हैं। (क्योंकि) यदि एक पर भी अच्छी तरह कायम रहे तो दोनों का फल मिली जाता है। 4।

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥ 5 ॥

जो स्थान संन्यास से मिलता है वही योग से भी। (इसलिए इस तरह) संन्यास तथा योग को जो एक ही समझता है (दरअसल) वही समझदार है। 5।

संन्यास्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चरेणाधिगच्छति॥ 6 ॥

हे महाबाहु, बिना योग के संन्यास की सिद्धि - प्राप्ति - असंभव है। (विपरीत इसके) जो योगयुक्त है अर्थात कर्म करता है उसे संन्यास की प्राप्ति शीघ्र ही होती है। 6।

आगे बढ़ने के पहले इन पाँच श्लोकों के संबंध में कुछ बातें कह देना जरूरी है। एक तो यह कि दूसरे श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय वही है जो उससे पहले हमने अर्जुन के प्रश्न के अभिप्राय के विवेचन के सिलसिले में आखिर में कह दिया है। कर्म के खतरों को ध्या्न में रख के ही उस पर जोर देना कृष्ण जरूरी समझते हैं। उनके जानते वास्तविक संन्यास में कोई खतरा है नहीं और कच्चे संन्यास को रोकने के लिए कर्मों पर ही जोर देना जरूरी हो जाता है। मगर सर्वसाधारण के सामने हर बात इतनी सफाई के साथ कही तो जा सकती नहीं। क्योंकि सब लोग इसे समझ पाते नहीं और भटक जाते हैं। इसीलिए यही बातें दूसरे तरीके से कही जाती हैं जिन्हें वेदवाद या अर्थवाद का तरीका गीता ने भी माना है और पुराने लोगों ने भी। कृष्ण ने भी यही तरीका यहाँ अपनाया है।

असल में संन्यास की सीढ़ी कर्मों के बाद आने के कारण ऊँची तो हई। उसकी जवाबदेही भी बड़ी है। इसीलिए शास्त्रों ने उसकी प्रशंसा काफी की है। मगर दिक्कत यह होती है कि जन-साधारण प्रशंसा के कारणों और रहस्यों को न समझ सकने के कारण उसके बाहरी रूप पर ही लट्टू हो के उसी ओर झुक पड़ते हैं। फलत: कर्मों से हटने का खतरा बराबर रहता है। इसीलिए तीसरे श्लोक में यह दिखाया गया है कि असली संन्यासी वही है जो रागद्वेष एवं काम-क्रोध से शून्य हो, जिसमें बैर-विरोध आदि होई नहीं। उसे ही मुक्ति मिलती भी है। अब यदि यही काम-क्रोधादि का त्याग कर्म करने वाले में आ जाए तो उसके दोनों ही हाथ में लड्डू हैं। वह योगी का योगी - कर्मी - तो ठहरा ही। साथ ही, यदि देखा जाए तो संन्यासी भी हो गया और इस तरह उसने मुक्ति का रास्ता साफ कर लिया। इससे फायदा यह होता है कि एक तो पाखंड और मिथ्याचार के रूप में संन्यास को प्रश्रय नहीं मिलता। दूसरे जन-साधारण उससे हिचक जाते और सोचने लगते हैं कि तब तो कर्म ही अच्छा है। क्योंकि हम काम-क्रोधादि से शून्य तो हो सकते नहीं और इसमें ऐसा होना जरूरी भी नहीं, जबकि संन्यास में नितांत आवश्यक है। इसलिए आइए, कर्म ही करें और यथासंभव काम-क्रोधादि को भी रोकें, ताकि आगे का भी रास्ता धीरे-धीरे साफ होता चले।

एक बात और भी है। यदि यह निश्चय हो कि संन्यास और योग के फलस्वरूप जो स्थान या पद मिलते हैं, या मुक्ति होती है वह दो चीजें हैं, तो स्वभावत: खयाल होगा कि संन्यास के ऊँचे दर्जे की चीज होने के कारण उसके फलस्वरूप जिस वस्तु की प्राप्ति होगी वह अवश्य ही श्रेष्ठ होगी, और श्रेष्ठ पदार्थ कौन नहीं चाहता? इसलिए उसी की आतुरता और लोभ के चलते बहुत लोग फिर भी संन्यास पर जोर मार सकते हैं और असमय ही उस ओर पाँव बढ़ा दे सकते हैं। अतएव यह बताने की जरूरत है कि दोनों के दो फल न हो के दोनों का सम्मिलित फल एक ही है। चाहे संन्यासी हों या कर्मी हों, या आगे-पीछे दोनों ही हों, जाएँगे हर हालत में एक ही स्थान पर। एक ही स्थान के रास्ते के ये दो विभाग हैं, न कि और कुछ। ऐसी दशा में एक तो बेचैनी और लोभ जाता रहेगा। दूसरे यह खयाल होगा कि जब रास्ते को पूरा ही करना है और पहले भाग के पूरा करने पर ही दूसरा आएगा तो जल्दबाजी क्यों करें? ऐसा करने से मिलेगा भी क्या? यही बात आगे के दो - 4, 5 - श्लोकों में स्पष्ट की गई है।

कुछ लोगों का भ्रम हो सकता है और हो भी गया है कि श्लोकों के अनुसार यद्यपि फल है एक ही; तथापि दोनों मार्ग उसकी प्राप्ति के लिए स्वतंत्र हैं; न कि एक ही लंबे मार्ग के ये दो पड़ाव हैं। मगर बात ऐसी नहीं है। चौथे श्लोक के पूर्वार्द्ध के देखने से यह खयाल जरूर हो जाता है कि दोनों - संन्यास और योग - को जो एक कहा है वह इसीलिए कि इन दोनों स्वतंत्र मार्गों से एक ही जगह पहुँचते हैं। मगर जब उसी के उत्तरार्द्ध पर गौर करते हैं तो यह खयाल मिट जाता है और दोनों मिला के एक ही रास्ता पूरा होता दीखता है। उत्तरार्द्ध का अर्थ यह है कि 'यदि एक रास्ते पर भी ठीक-ठीक चलें तो भी दोनों के फल मिल जाते हैं।' इसमें दो बातें हैं। पहली है दोनों के फल के मिलने की। यदि दोनों का फल स्वतंत्र रूप से एक ही होता तो इतना ही कहना काफी था कि 'वही फल मिलेगा' - "तदेव विन्दते फलम्।" यह कहने की क्या जरूरत थी कि एक पर चलने पर भी दोनों का फल मिलता है? दोनों कहने से तो दोनों का सम्मिलित फल मिलता है, यही अर्थ निकलता है। एक कहने के बाद दोनों का - उभयो: - कहने पर दूसरा अर्थ होई नहीं सकता। नहीं तो इतना ही कहना पर्याप्त था कि चाहे किसी रास्ते पर चलिए नतीजा एक ही होगा।


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